कबीर साहब के दोहे में वेदांत की आत्मा है। उनके दोहे एक या दो पंक्ति के ही होते हैं लेकिन कबीर साहब इतने बड़े हैं कि पूरे पकड़ आ जाएँ ये संभव नहीं है। हालांकि हम पूरा प्रयास करते हैं कि कबीर साहब के दोहे को मुठ्ठी में भींच कर साधारण घोषित कर दें क्योंकि उनके दोहे में न तो संस्कृत निष्ठ भाषा होती है, न ही वेदांत की शब्दावली झलक रही होती है।
कबीर साहब की वेदान्तिक दृष्टि जिस किसी चीज़ पर भी पड़ती है वह उसे ही दोहे में पिरो देते हैं। साधारण मन को सुनने में ऐसा लगता है कि सब समझ में आ गया। लेकिन जब किसी गुरु, वेदांती या कृष्ण की नजर से जब हम उन दोहे को समझते हैं तो स्तब्ध रह जाते हैं। दोहे का इतना गूढ़ अर्थ हो सकता है, हमें ये तब समझ में आता है जब हम अपने साधारण मन से नहीं बल्कि गुरु की दृष्टि से दोहे का पाठ कर रहे होते हैं।
किसी आम संसारी की तरह कबीर साहब कपड़ा बुनते और रोटी कमाते दिखते हैं लेकिन अपने दोहे से वह समाज की रीतियों पर व्यंग करते हैं और एक गुरु की तरह हमारा परिचय सत्य से कराते हैं ।
कबीर साहब के दोहे में वेदांत की आत्मा है। उनके दोहे एक या दो पंक्ति के ही होते हैं लेकिन कबीर साहब इतने बड़े हैं कि पूरे पकड़ आ जाएँ ये संभव नहीं है। हालांकि...