मन के साथ हम बहुत बुरा व्यवहार करते हैं। जैसे किसी शिशु को पांव में चोट लगी हो और वो रोते रोते मां के पास पहुंँचे और माँ उसे दूध पिलाने लगे। कुछ ऐसा सा उपचार करते हैं हम अपने साथ। मन रोता है शांति के लिए और हम एक के बाद एक अशांति को आमंत्रित करते ही रहते हैं कि शायद अब मन का पेट भर जाएगा, मगर ऐसा हो नहीं पाता।
कैसे समझें मन को?
मन खुद को ही कैसे फसाता है?
क्या मन खुद का उपचार कर सकता है?
अगर हां तो वेदांत की क्या जरूरत?
कुछ ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर जानेंगे, आचार्य प्रशांत संग इस सरल कोर्स में।
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