साधारण चेतना को हमेशा दो दिखाई देते हैं, हमेशा एक मूल-भेद दिखाई देता है। वह मूल-भेद है कि हम दुनिया और खुद को अलग-अलग देखते हैं। वह रही दुनिया और यह रहा मैं। यह चेतना देखने वाले को "मैं" कहती है और दिखाई देने वाले को कहती है "संसार"। इस कोर्स में साधारण चेतना और विशुद्ध चेतना के संसार को देखने के परिपेक्ष्य को समझेंगे।
आगे आदिशंकराचार्य जी ने ध्यान की विधियों पर व्यंग्य किया है। लोगों को लगता है कि इन विधियों का पालन करने से उन्हें कोई आध्यात्मिक लाभ हो जाएगा। ऐसी दृष्टि कोई काम की नहीं है जो ध्यान के नाम पर शरीर के किसी अंग पर जाकर ठहर गई है। शरीर को नहीं बल्कि ब्रह्म को देखना है। ब्रह्म के अतिरिक्त कोई और दृष्टि अगर भा गई है तो तुम्हारी दृष्टि अब निर्मल नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि ब्रह्म को विषय कैसे बनाओगे? इस कोर्स में ध्यान की विधि और ब्रह्म मात्र को विषय बनाने पर गहन से चर्चा होगी।
वैसे तो यह ग्रंथ हज़ारों वर्ष पुराना है परन्तु आचार्य प्रशांत द्वारा की गई व्याख्या इसको आज की पीढ़ी के लिए अत्यंत सरल व प्रासंगिक बना देती है। अपरोक्षानुभूति के प्रकाश में अपने जीवन को एक नई दिशा दीजिए, आचार्य प्रशांत के साथ इस सरल कोर्स में।
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